प्रेम

जब युद्ध हो रहा था
हम छुपकर मिल रहे थे
हम प्रेम कर रहें थे
हमारे पास दुनिया बदलने के लिए
सिवाय प्रेम के कुछ भी नहीं था ।

अजनबी राजा

पिता ….

मेरी बढ़ती उम्र
उनकी ढलती उम्र
मैं होता जवां
वो होते बूढ़े

ख्वाहिशें मेरी बढ़ती हुई
उम्मीदें उनकी मुझसे छत चढ़ती हुई
उनके माथे पर बढ़ती झुर्रियाँ
मेरे माथे पर बढ़ता तेज

कुछ इस तरह से
वो ढ़लते गए
मैं निखरता गया

वो खड़े रहें बरगद की तरह
मैं उनकी छाव तले खुद को गढ़ता गया
वो घर
मैं उनके आँगन का सितारा बनता गया

लेखकः अजनबी राजा

बरसात

सुनो इस बार बरसात में
तुम आना गाँव मेरे
कई साल हो गए है
तुम्हे देखे हुए भी
वो गाँव का बरगद
वही खड़ा है
पर थोड़ा बूढ़ा हो गया है
पर जब उसकी वो निकली जड़े पकड़ कर में खाती हूँ झूला
वो गिरने नही देता आज भी मुझे
पकड़े रखता है हाथ मेरा
तुम्हारी तरह ?
खैर तुमने तो छोड़ दिया था
वो हाथ बीच राह में
पर तुम आना इस बार बरसात में
वो मिट्टी जब भीग जाएगी बरसात में
तुम महसूस करना उसकी महक को , उसकी वो सौंधी खुशबू
जब दोपहर में
तुम कर रहे होंगे खेत में काम ,
मैं ,रोटी, वो मखन वाली छाछ और लेकर आउंगी प्याज
हां पता है अब तुम्हे यह सब नही लगेगा अच्छा
पर तुम खा लोगों यह भी जानती हूँ ।
सुनो तुम आना इस बार बरसात में
गाँव अब कुछ छोटा हो गया है
घर जो सबके बड़े हो गए है
पर लोग वही है आज भी
माँ आज भी गाँव वालो से दूध के पैसे नही लेती
और हरिया काका आज भी वही कहानियां सुनाया करते है जब वो आजादी की लड़ाई मे गए थे
बोहत कुछ बदल तो गया है गाँव में
हर घर की छत पर अब वो मिर्ची , सब्जिया नही सुखाई जाती
अब दूर से ही गाँव की छतो पर वो तुम्हारे शहर की छतरी नुमा टीवी के लिए डिस कनेक्शन लगा हुआ दिख जाता है
पर वो तुम्हारी शर्ट उस सरकारी स्कूल की आज भी रखी है मेरे पास संभाल कर
जिसे मैं आज भी कभी कभी रात में अपने मुँह पर ओढ़ लेती हूँ
ताकि तुम्हारी बाहों की कमी पूरी हो जाए
सुनो तुम आना इस बार बरसात में
कुछ कहानियां पूरी करनी है जहाँ से तुम छोड़ गए थे
सुनो तुम आना ………..

लेखकः अजनबी राजा

मजदूर दिवस

मजदूर दिवस

हम मेहनतकश लोग
धरा की छाती पर उग आये उन
पत्थरों को ढोते है ।

हम मेहनतकश लोग
कुदाल ,फावड़ों , से
सुबह – शाम दो – दो हाथ होते है ।

हम मेहनतकश लोग
दिनभर की थकान के बाद
सर्द रात भी चैन की नींद सोते है ।

हम मेहनतकश लोग
महंगे महल बनाकर
एक छप्पर की झोंपड़ी में सपने संजोते है

हम मेहनतकश लोग
दिन भर के मेहनताने में
दो वक़्त रोटी और सारे आसमां के चाँद – तारे
बटोरते है ।

हम मेहनतकश लोग …….

लेखकः अजनबी राजा

इंसानियत

इंसानियत
मरी पड़ी है आज
मोहनजोदड़ो के उस तालाब किनारे
जहाँ सालो पहले
मिली थी एक लाश महिला की
वो हड्डिया उन मजदूरों की …..
आज के इस दौर में

इंसानियत

कही पड़ी है किसी गड्ढे मे दफन होने को
कही पड़ी है उन लकड़ियों के ढेर पर
कोई आये ओर डाल दे कुछ मिट्टी
ले कोई जलती लो ओर भस्म कर दे उसकी देह को
मनुष्य आज
देखता है अपराध को धर्म से जोड़कर
ओर पूछती है कलम मेरी की
जन्म के उस वक़्त तुम किस धर्म के थे
खबर कहा तुमको यह
खैर की अब तुम्हारे नेत्रों पर एक चश्मा चढ़ा पढ़ा है धर्म का
जिन्हें आसिफा , ओर निर्भया ,डेल्टा
दिखती है पहले एक धर्म से
फिर दिखती है की वो थी एक स्त्री

इंसानियत

मरी पड़ी है …
उस जगह …..जहाँ निचोड़ा , रोंदा, कई बार हवस का भोगी बनाया गया उस को ….
जिसे पहले तुम धर्म की आँख से देखते हो
ओर कलम मेरी देखती है की वो थी एक बच्ची, एक लड़की , एक महिला साठ साल की ……..

लेखक —-अजनबी राजा

तुम चुप मत रहो

सुनो की
तुम लड़की हो ना
इसलिए तुम्हे कुछ बाते बतानी जरूरी है
की अगर तुम्हे कही मिल जाये
ये बेटी बचाओ ,बेटी पढ़ाओ नारा

तो तुम घबरा जाना नही
यह मेरे समाज का उसूल है की
बेटियां होती है कमजोर यह तुम्हारा नही कसूर
लग जाती है यहाँ पर बोलियां तुम्हारी बचपन से
की होने नही देंगे तुम्हे बालिग ये लोग
ओर कर देंगे तुम्हारे ये हाथ पीले किसी अधेड़ संग

इसलिए मैं कहता हूँ

तुम सुनो
उन चीखो को ,
ये फरमान जारी करते है
तुम्हारे जिन्स टॉप पहन लेने पर
लेकिन ये उफ्फ़ तक नही करते जब
एक आठ माह की उस नवजात के साथ हो जाता है चीर- हरण

तुम सुनो ओर भी है
बोहत कुछ सुनाने को की
भागते ,लड़ते , संभलते हुए जब तुम निकलोगी किसी सड़क पर
तब तुम्हे ये ताड़ेंगे , देखेंगे तुम्हारे उन नितम्बो को

कई बार ये मुह फाड़ तुम पर उड़ेलेंगे अपनी हवस
लेकिन तुम लड़की हो
यह सिखाया था तुम्हे सुरू से , ओर तुम
चुपचाप चली आओगी ,

लेकिन सुनो

अब तुम्हे चुप रहना नही है
तुम्हे उठना है की , अब हर रोज अखबार तुम्हे नंगे बदन दर्शाता है
बताता है वो हवस की उस आग को जिसने छोड़ा नही उस दादी माँ को भी जो , घर मे थी अकेली

सुनो तुम्हे बदलना होगा उस नारे को
की बेटियों को बचाना है पर
अगर तुम्हे बचाना है तो बचाना होगा उस
हर माँ को , जो कोख मे ही मार देती है तुम्हे

तुम्हे बचाना होगा उस बाप को जो बेटे की खातिर कई दफ़ा उस बनिये के पास गिरवी छोड़ आता है खुद को

तुम्हे उस स्त्री को बचाना है जो उस रात
घर ना जा सकी लेकर अपनी वो इज्जत
की अब लड़कियों को पढ़ाना जरूरी नही
जो कहते थे लोग
पर उन्हें अब ये बताना जरूरी है की , हवस के इस दौर मे
तुम्हे अब चूप रहना बन्द करना होगा ।

सुनो की अब
तुम्हे भी कुछ सुनाना होगा
तुम्हे भी बताना होगा की
अब तुम नही हो वो अबला नारी
की अब तुम फाइटर प्लेन उड़ा लेती हो

सुनो की तुम अब
चुप मत रहो की
इस बार फिर कोई निर्भया ,डेल्टा या कोई जैनब ना बन जाये ,
इसलिए कहता हूँ की
सुनो ……… तुम चुप मत रहो

लेखक :- अजनबी राजा
जोधपुर
9602923068

वो चमार था ……….

चाँद तारे

बतियाते है वो

कहानी एक

गाँव की

उस साँझ ढलती रात मे

सन्नाटे के उस पार

जब मिला करते थे । जवां दो दिल

बात बहुत पुरानी थी

हलचल अब कोई होने वाली थी

चुपके चुपके उनकी कहानी

अब आगे बढ़ने वाली थी ।

गुलाब सी वो लड़की

उसकी पंखुड़ियों सा लड़का था ।

एक टांग से जो लंगड़ा था ।

पर मोहब्बत मे ये कहा अड़ंगा था ।

रात उस रोज

चाँद से बाते करने बैठ गयी

वो अपना अँधियारा भूल गयी

उजाला चाँद का फैलने लगा ।

अब कोई राह चलता राहगीर

उनको देखने लगा था ।

सुबह होते होते बात फैल गयी

लड़की थी ठाकुर की ओर

लड़का था ,चमार

बात ये पूरे गाँव मे फैल गयी ।

आ धमका घर उसके ठाकुर

उठा उस लंगड़े को

बाहर पटक दिया।

लाया कोई रस्सी मजबूत

बाँध उसको , गाँव के चौराहे पर

टांग दिया

चमारों की बस्ती अब धू धू कर जलने लगी

बेटियां उनकी अब ठाकुरों के घर मे चढ़ने लगी ।

इधर ठाकुर की बेटी

लगी खबर उसको , उसके प्रियतम की

चीख ना निकली हलक से उसकी

जा चढ़ी हवेली के ऊपरी माल पर

लगाई छलांग ओर खत्म कर दी जवानी अपनी ।

ठाकुर

अब पागल हो बैठा

अपनी एक ही संतान को खो बैठा ।

वो बस्ती अभी भी जले जा रही थी

रात हो गयी , पर रात ना हुई ।

आज अब कोई चुपके से बात ना हुई ।

……………………….

©

अजनबी राजा

आजादी मनाते है

चलो आज़ादी आयी है
आज़ादी के गीत गाते है
घर अपना थोड़ा बिखरा पड़ा है
उसे थोड़ा सजाते है

वीर आएंगे मेरे घर भी
थोड़ी मिट्टी उस कांच के फर्श पर लगाते है
तिरंगा लाओ कोई
घर के बाहर लगाते है

सीने में देशभक्ति की एक लो जगाते है
थोड़ा मुस्कुराते है
चलो आज़ादी आयी है
आजादी के गीत गाते है

सड़क किनारे तिरंगे बेचते उन बच्चो से
सारे तिरंगे ऊँचे दाम में खरीद लाते है
चलो आज़ादी मनाते है

बुलाते है उन बलात्कारियो को
उन आंतकवादियो को
बताते है उन्हें भी
होती क्या है देशभक्ति

बुलाते है चलो
उन जातिवादियो को
सुनाते है उन्हें भी उन वीरो की कहानियाँ जातिवाद से परे थी
जिनकी अपनी निशानियां

चलो बुलाते है
उन कट्टरपंथियों को
जलाते है जो बस्तियाँ अक्सर
देश के नाम पर
मज़हब के ईमान पर
उन्हें दिखाते है
वो लहू से लथपथ निशानियां

सुनाते है उन्हें वो

ललकारते इंकलाब के नारे
भागते वो अंग्रेज बेचारे
चलो आजादी आयी है
आजादी के गीत गाते है

भ्रष्टाचार के इस दौर में
हम भारत को स्वच्छ बनाते है

पेड़ो से झूलते किसानों को
कर्ज में दबे खेत -खलिहानों को
उन साहूकारों से छुड़ाते है
चलो हम आजादी मनाते है

भीम के प्रावधानों को
संविधान के सम्मानों को
चलो घर घर
शिक्षा का पानी घोल आते है

हम आजादी मनाते है
हम आजादी के गीत गाते है
जय हिंद

लेखक

©
अजनबी राजा

स्वतंत्रता

” स्वतंत्रता ”
कही खो गयी है
जो मिली थी
कुर्बानियों से
वीरो की जवानियों से
बढ़ते कदम तले
ठोकरों की निशानियों से

” स्वतंत्रता”
कही खो गयी है
हिन्दू -मुस्लिम के फसानों में
भड़कते दंगो के फसादों में
जो मिली थी
लाखों खून के बहाने से
सुहागिनों के उजड़े मकानों से

” स्वतंत्रता ”
कही खो गयी है
जातियों के बंटवारों में
राजनीती के नारों में
जो मिली थी
लड़ते -मरते उन
शहीदों के नारों से “

स्वतंत्रता ”
कही खो गयी है
भूख मरी के गलियारों में
महँगाई के इन बाज़ारो में
जो मिली थी
गोरों के ठिकानो से
लड़ते उन काले जवानों को

” स्वतंत्रता ”
कही खो गयी है
आज के अखबारों में
बढ़ते नारी पर अत्याचारों में
जो मिली थी
झाँसी के बलिदानों से
लड़ती उस मर्दानी नारी को

” स्वतंत्रता ”
कहीं खो गयी है
लड़की और लड़को के बंटवारों में
कन्या भूर्ण के हत्यारों में
जो मिली थी
भगत सिंह के ललकारों से
आज़ाद की गोली की आवाजों से

” स्वतंत्रता ”
कही खो गयी है
बड़ती इस भीड़ में
पाश्चात्य की इस दौड़ में
जो मिली थी
करघे को अपनाने से
नमक को घर घर का बनाने से

” स्वतंत्रता ”
कही खो गयी है
भ्रष्टाचार के घरों में
बदलते नोटों के रंगों में
जो मिली थी
कच्ची रोटियां पक्का कर
सीने पर हज़ार गोलियां खा कर

” स्वतंत्रता ”
कही खो गयी है
बड़ती मजहबो की भीड़ में
मंदिर – मस्ज़िद की नींव में
जो मिली थी
भाईचारे के उस नारे में
हिन्दू -मुस्लिम के बंटवारे में

” स्वतंत्रता ”
कही खो गयी है
संविधान के अपमानों में
बदलते प्रावधानों में
जो मिली थी सदियों की गुलामी
से दो सौ सालों की उस लड़ाई में

में ढूंढ़ता हूँ
वो
हिन्दू -मुस्लिम
सिख – ईसाई
थे जो आपस में भाई
जो करते थे भारत माँ की बढ़ाई
मर मिटते तिरंगे की आन में
तिरंगे की उस शान में
जय हिन्द
लेखक
©
अजनबी राजा